जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव परिणाम कांग्रेस के लिए कोढ़ में खाज की तरह हो गए है। चुनाव में जिस गति से उत्साह के साथ कांग्रेस ने एंट्री करी उसी तरह चुनाव के बाद उलझन में फंस गई।
धारा 370 की वापसी के नेशनल कांफ्रेंस के कोर एजेंडे का साथ देना कांग्रेस के लिए आत्मघात जैसा था। यह कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति को तहस नहस कर सकती थी। इसलिए साथ होकर भी कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस दोनों अलग अलग चुनाव लड़ते नजर आए।
इसीलिए राहुल गांधी की जी तोड़ कोशिश के बावजूद भी कांग्रेस ने जम्मू कश्मीर चुनाव में पटकनी खाई। कांग्रेस 2014 की 12 सीटों की तुलना में 2024 में महज 6 सीटे ही जीत सकी। यही नहीं, जम्मू क्षेत्र की 43 में से 42 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस अपना खाता भी नहीं खोल सकी।
जम्मू कश्मीर के साथ हुए हरियाणा चुनाव में अप्रत्याशित हार के बाद इंडिया गठबंधन के कांग्रेस के साथियों ने कांग्रेस को महत्व देना कम कर दिया।
इसका असर जम्मू कश्मीर में भी देखने को मिला। 6 निर्दलीयों और आम आदमी पार्टी के समर्थन से बहुमत का 46 का आंकड़ा पार करने के बाद सत्तासीन नैशनल कांफ्रेंस ने कांग्रेस को तवज्जो देनी कम कर दी। सूत्रों के अनुसार नेशनल कांफ्रेंस ने कांग्रेस की स्पीकर और 2 केबिनेट मंत्री पद की मांग को दरकिनार कर दिया।
इधर सत्तासीन नैशनल कॉन्फेंस अपनी पहली केबिनेट बैठक में धारा 370 की वापसी का संकल्प पारित करने की तैयारी कर रही है जो कांग्रेस के लिए मुसीबत की तरह है। इसीलिए भले ही एक दशक बाद जम्मू कश्मीर में बनी सरकार के शपथ समारोह में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी शामिल हुए लेकिन सरकार में शामिल होने से तौबा कर ली।
दूसरी तरफ सुगबुगाहट है कि आत्मनिर्भर हुए उमर अब्दुल्ला और फारूक अब्दुल्ला का झुकाव केंद में सत्तासीन भाजपा की और बढ़ रहा है। जम्मू कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के नई बनी सरकार के प्रति सकारात्मक रुख से लग रहा है कि नेशनल कांफ्रेंस और भाजपा कभी भी गले मिल सकते है। नेशनल कांफ्रेंस के धारा 370 पर समझौतावादी रवैया अपनाने को उसके भाजपामुखी होने की संभावना को मजबूत कर रहा है।
इन सभी परिस्थितियों से लगता है कि जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए कोढ़ में खाज की तरह ही रहा।